वनीकरण से जल संवद्र्धन

रमेश पहाड़ी



उत्तराखंड जल बहुल प्रदेश है। जल की प्रचुरता के कारण ही मध्य हिमालय का यह क्षेत्र जल-स्तंभ (वाटर टावर) के नाम से भी संबोधित किया जाता है। गंगा, यमुना, तमसा, काली जैसी सदाबहार नदियों और उनकी सैकड़ों धाराओं का यह हिमालयी भूभाग भारी वर्षा प्राप्त करने वाला क्षेत्र भी है। जल विज्ञानियों के अनुसार उत्तराखंड के 53484 वर्ग किमी क्षेत्रफल के भीतर वर्षभर में औसतन 69.53 अरब घन मीटर पानी बरसता है जिसका अधिकांश हिस्सा सीधे आगे बह जाता है और साल के अधिसंख्य दिनों में उत्तराखंड के प्राणियों के कंठ तथा खेतों के उदर सूखे रह जाते हैं। इसी कारण उत्तराखंड के लोगों को कई बार 'कुबेर के खजाने पर बैठे कंगालÓ तथा 'पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आतीÓ जैसी उक्तियां भी सुनने को मिलती रहती हैं।
यह स्थिति जल के प्रबंधन और संग्रहण के स्थानीय लोगों के ज्ञान, इच्छा-शक्ति और प्रोद्यौगिकी की कमी को भी दर्शाती है। साधन-संपन्न लोगों की सोच और सरकारी जल प्रबंधन का दम्भ तो यह रहा है कि नजदीक मिलने वाले पानी से आवश्यकता पूरी नहीं होती तो दूर से पानी लाओ। छोटी योजना से काम नहीं चलता तो बड़ी बनाओ, लेकिन पानी के स्थानीय स्तर पर संग्रहण और जल-स्रोतों के संवद्र्धन-संरक्षण की दिशा में वांछित कार्य जितना अपेक्षित था, पर ध्यान दिया ही नहीं गया। इसी का परिणाम है कि उत्तराखंड के साथ-साथ पूरे देश में पानी का गंभीर संकट पैदा हो गया है। पानी बहुत है, लेकिन उसके प्रबंधन, संग्रहण का व्यापक तंत्र और सस्ती-सुलभ प्रोद्यौगिकी नहीं है। इसलिए कंठ और बंठ (पानी रखने का बर्तन) - दोनों सूखे हैं। 
इस स्थिति को जल संग्रहण व स्रोत-संरक्षण से बदला जा सकता है। यह देश और विदेश में अनेकों सफल प्रयोगों ने सिद्ध भी कर दिखाया है, लेकिन उसको क्रियान्वयन के स्तर पर जन-जन तक पहुंचाने का कोई व्यापक तंत्र अभी तक तैयार ही नहीं किया गया है।
बरसाती पानी को रोकने के लिए उसके पांवों में विभिन्न प्रकार की बेडिय़ां डालकर तथा अधिकाधिक जल संचय कर उत्तराखंड जल के संकट से आसानी से मुक्ति पा सकता है, यह बात तो दशकों से कही जा रही है और उसके अनेक सफल मॉडल भी बने हैं, लेकिन उन्हें व्यापक स्तर पर अधिकाधिक जनभागीदारी के साथ क्रियान्वित नहीं किया जा सका है। इसलिए पानी का संकट बना हुआ है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि भरपूर पानी वाली नदियों की तटवर्ती बस्तियों में तक टैंकरों से पानी पहुंचाना सरकारों का नियमित कार्यक्रम बन गया है और इस पर देश के संसाधन बड़ी मात्रा में खर्च हो रहे हैं।
इस गंभीर समस्या को गंभीरता से लिया है- रुद्रप्रयाग के जिलाधिकारी मंगेश घिल्डियाल ने। अपने सवा दो साल के कार्यकाल में अनेक अभिनव कार्यक्रमों को आरंभ करने के बाद अब उन्होंने एक नदी को जल संभरण-संरक्षण के लिए चुना है और उस पर विशेषज्ञों तथा समाज के अनुभवी लोगों से व्यापक विचार-विमर्श कर सिंचाई विभाग के साथ ग्रामीणों को जोड़ते हुए एक 5 वर्षीय कार्य योजना बनाकर, उस पर काम भी शुरू कर दिया है। 
इसके अंतर्गत विकासखंड अगस्त्यमुनि की न्याय पंचायत चोपड़ा में स्थित गांव कुरझण एवं क्वीली के समीप बरसाती नाले बौन्सारी, जो लगभग साढ़े 5 हजार फुट की ऊंचाई से शुरू होकर 2 हजार फुट नीचे उतरकर अलकनंदा में मिलता है, को स्रोत से ही उपचारित किया जाएगा। इसमें वृक्षारोपण के साथ ही छोटी ताल-तलाइयों की अनगिनत श्रृंखला तैयार की जा रही है, जिनमें बरसाती पानी एकत्र होता चला जाएगा। इनकी मेड़ों पर तेजी से पनपने वाली घासों का रोपण किया जाएगा और समीपवर्ती भूमि पर ग्रामीणों के उपयोग में आने वाले चारापत्ती के पौधे लगाए जाएंगे। यह कार्य ग्रामीणों की सहभागिता से शुरू किया गया है और उनकी देखरेख की जिम्मेदारी भी उन्हीं को सौंपी गई है। इसके लिए उन्हें पारिश्रमिक की व्यवस्था भी की गई है और उसके लाभ-वितरण में भी उनकी ही भागीदारी को सुनिश्चित किया गया है। 
जिलाधिकारी ने उत्तराखंड में वन और पर्यावरण के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वाले विशिष्ट लोगों को भी इसमें सम्मिलित किया है, ताकि उनके कार्यों व अनुभवों का लाभ स्थानीय ग्रामीणों व कार्यकर्ताओं को मिल सके। 
इसके लिए संबंधित गांवों की महिलाओं को अधिक जिम्मेदारी सौंपते हुए ग्राम नदी संरक्षण समितियों का गठन भी किया गया है और इनके मार्ग-दर्शन तथा अनुश्रवण के लिए एक अनुश्रवण समिति का भी गठन प्रस्तावित है।
ग्रामीणों, मुख्यत: महिलाओं को विश्वास में लेकर आरंभ किए गए इस अभिनव प्रयास की सफलता के लिए जिस व्यावहारिक कार्यक्रम की संरचना की गई है, उससे यह आशा बलवती हुई है कि इस नदी को सदानीरा बनाने की जिलाधिकारी और उनके सहयोगियों को सफलता अवश्य प्राप्त होगी तथा बौन्सारी गधेरा पर्वतीय जल प्रबंधन का एक ऐसा मॉडल बनेगा, जो पूरे पहाड़ी क्षेत्र के लिए जल-समस्या के निदान का मार्ग प्रशस्त करेगा।