क्या सच में समाप्ति की ओर है गंधर्वों का युग...?

मनोज इष्टवाल


जिन्हें हम जन्मजात कवि और नर्तक कह सकते हैं, जिन्हें हम फसल बोने से लेकर कटने तक उलाहने दे सकते हैं. जिन्हें राजाओं, सामंतों, जमीदारों, थोकदारों की चौखट के फनकार कह सकते हैं, आज ये सब शिव भक्त गंधर्व जाने किस रसातल में विलुप्त होकर गुमनामी के अंधेरों में खो गए हैं! गढ़वाल मंडल में जिन्हें बेड़ा (बद्दी/बादी). मिरासी, ढाकी-धियाड इत्यादि नामों से पुकारा व जाना गया है। वर्तमान में ये जाति और इसके लोग कहां लुप्त हो गए हैं, यह कहना असम्भव सा है! 
वेदों का अगर ज्ञान लिया जाए तो सामवेद में बेड़ा अर्थात बादी को शिव का आदेश है कि- 'भूतानि आचक्ष्व, भूतेषु इमं यजमान अध्वर्युÓ अर्थात इतिहास कहा, क्षेत्र के इतिहास अर्थात ऐश्वर्य में यजमान की रुचि उत्पन्न करो! 
इसे औसर भी कहा गया है, जो एक ब्राह्मण के मुख से निकले शब्द को बेड़ा के लिए आज्ञा कही गई है। जिसके अनुरूप ही बेड़ा अपने पूरे जोश-खरोश और शिव के गुणगान के बाद खंडबाजे शब्द का उद्घोष कर अपने यजमानों की जयवृद्धि का मंगलगान करता है!



परात नृत्य, थाली नृत्य, शिव-पार्वती संबंधी नृत्य, नट-नटी नृत्य, दीपक नृत्य, लांग खेलना, काठ खेलना एवं सम सामायिक गीत व नृत्यों से मन मोहना इस जाति का सबसे बड़ा कर्तव्य समझा जाता था! वर्तमान में भी ये सभी पैतृक गुण इन लोगों में विद्यमान हैं, लेकिन बदलती संस्कृति और लोक व्यंजनाओं ने हमारी इस कला और इसके पारखियों को चौपट कर दिया है! ये सम सामायिक घटनाओं के ऐसे कवि हैं कि किसी भी घटना पर कब लोक काव्य रच दें और कब उसे नृत्य और गायन में ढालकर प्रस्तुत कर दें कहना संभव नहीं है!
जमाने के परिवर्तन के साथ बेड़ा/बादी समाज ने अपने गीतों को भी उन्हीं शब्दों में ढालने की जो पारंपरिकता अपनाई है, वह बेजोड़ है! 
इन्होंने समाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं विविध विषयों पर गीत, सामायिक, असामयिक, सम-सामायिक घटनाओं का घटनाक्रम, काल्पनिक अतियुक्ति घटनाक्रम, नया जमाना, नई रीति, सामयिक क्रान्ति के गीत, नेताओं के गीत, युद्ध के गीत, सामाजिक घटनाओं में आर्थिक संकट इत्यादि के साथ नारी प्रदान गीतों में दौंथा, भामा, रायुड़ी, गयेली बौ, छुमा, तारु-छुमा, कुसमा कोलिण, स्याली-भीना, गणेशी, लस्का कमर व वर्षा ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, जाड़ा व जितने भी खेत खलिहान, अन्न कोठार व प्रकृति के श्रृंगार हैं, बेड़ा/बादी जाति ने एक भी विषय को अपने शब्दों से दूर नहीं जाने दिया!
जब पहाड़ में चाय पीने की शुरुआत हुई, तब बेड़ा/बादी जाति के लोगों ने उसे गीतों में ढालकर कुछ यों गाया- 'क्य जमानो आये भयुं सौबिंदी का साल जी! हुरी धाणी फुन्डु फूका, चा जरूरी चैन्दी जी!Ó 
वहीं उन्होंने सड़क आने का वर्णन कुछ यों किया कि- 'जौं पौडू़-पखाण माराज...गोणी नि गैनी बांदर जी! तौं पौडू़ पखाणु तोड़ी, दौड़ी कि मोटरि आई गेन जी!! आज का मैना इकन्नी दुवनि, भोल का मैना पैंसा जी! सरकारी मोटर छुटेन जन कुमैया भैंसा जी!!
पौड़ी गढवाल के खिर्सू मेले की आज से 50 वर्ष पूर्व तक बड़ी चर्चाएं हुआ करती थी। इसे मेला नहीं, बल्कि खिर्सू बौडिंग के नाम से जाना जाता था। इस पर भी बाड़ी समाज ने जो गीत लिखा वह एक सदी से दूसरी सदी तक आज भी लोगों के मन मस्तिष्क में ज्यों के त्यों विराजमान हैं! 
अब खिर्सू बौडिंग का मतलब सीधा सा था कि तब वहां खिर्सू में एक बोर्डिंग स्कूल हुआ करता था, जिसे छात्रावास कहा जा सकता है! यह ब्रिटिशकाल की देन हैं और यह गीत भी ब्रिटिश काल में ही किसी बादी समाज के गिटर की देन थी-
'खिर्सू बौडिंग लग्युं च नीर-पाणी का डांडा...! घास काटी पूली, घास काटी पूली! तिन भी सूणी मूली! घास काटी कूरी, घास काटी कूरी...! खिर्सू बौडिंग लग्युं च छेआना मंजूरी!
इस जाति और इस जाति के चितेरों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है!  सच कहूं तो मेरे पास इससे संबंधित व्यापक शोध भी हैं, जिसे मैं प्रकाशित करने जा रहा हूं! हां कोई पत्र-पत्रिका वाला मित्र अगर यह इच्छा जताए कि ऐसा आलेख उनके पत्र पत्रिका में छपे तो वे मुझे निर्देश दे सकते हैं...!
मेरा सुझाव और प्रस्ताव भी आमंत्रित है कि अगर कोई इस विधा का व्यक्ति या लोककलाकार इस कला को जीवित रखने में सक्षम है तो सरकार व अन्य स्रोतों से हम उन्हें पूरी मदद पहुंचाएंगे वरना यह जाति और परंपरा समाप्त हो जाएगी, जिसे हमें संभालने की आवश्यकता है...!